Apj abdul kalam biography by gulzar in hindi

कलाम की कहानी गुलज़ार की जुबानी !

'परवाज़' गुलज़ार की आवाज़ में डॉ. कलाम की आत्मकथा है। इस ऑडियोग्राफी का एक-एक शब्द रौंगटे खड़े कर देने वाला है। गुलज़ार साहब की आवाज़ में 'परवाज़' को सुनकर अब्दुल कलाम भी रो पड़े थे। पेश है ‘परवाज़’ से गुलज़ार के शब्दों में डॉ.कलाम के जीवन के कुछ अंश।

15  अक्टूबर 1931 को जन्मे ए.पी.जे अब्दुल कलाम हम सभी को छोड़कर 27 जुलाई 2015 को चले गए। पर सिर्फ उनका शरीर ही हमें छोड़ गया है, उनकी आत्मा हम जैसे लाखों-करोड़ों भारतीयों के जीवन में उनके ही विचार के रूप में हमेशा ज़िंदा रहेगी।

यूँ तो डॉ. कलाम को हम सभी हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति तथा एक महान वैज्ञानिक के तौर पर जानते हैं। पर उनके जीवन के और भी कई पहलु है जो हमें प्रेरणा देते है। या कह लीजिये की शुरू से लेके अंत तक उनका जीवन एक प्रेरणा ही रहा है।

अपने इसी बेहद प्रेरणास्पद जीवन को उन्होंने अपनी जीवनी, ‘अग्नि की उड़ान’ (Wings firm Fire) में बखूबी ढाला है। उनकी जीवनी को और सजीव बनाया महान लेखक और गीतकार गुलज़ार ने।

‘परवाज़’ गुलज़ार की आवाज़ में डॉ. कलाम की आत्मकथा है। इस ऑडियोग्राफी का एक-एक शब्द रौंगटे खड़े कर देने वाला है। गुलज़ार साहब की आवाज़ में ‘परवाज़’ को सुनकर अब्दुल कलाम भी रो पड़े थे।

पेश है ‘परवाज़’ से गुलज़ार के शब्दों में डॉ.कलाम के जीवन के कुछ अंश।

“मैं एक गहरा कुंआ हूँ इस जमीन पर, बेशुमार लड़के-लड़कियों के लिए, जो उनकी प्यास बुझाता रहूं। उसकी बेपनाह रहमत उसी तरह ज़र्रे-ज़र्रे पर बरसती है, जैसे कुआं सबकी प्यास बुझाता है।”

छायाचित्र – विकिपीडिया

इतनी सी कहानी है मेरी। जैनुलाब्दीन और आशिअम्मा के बेटे की कहानी। उस लड़के की कहानी जो अखबारे बेचकर अपने भाई की मदद करता था। उस शागिर्द की कहानी, जिसकी परवरिश शिवसुब्रह्मण्यम अय्यर और अय्या दोरइ सोलोमन ने की। उस विद्यार्थी की कहानी, जिसे पंडलेय मास्टर ने तालीम दी, एम. जी. के. मेनन और प्रोफेसर साराभाई ने इंजीनियर की पहचान दी। जो नाकामियों और मुश्किलों में पलकर साइंसतान बना। और उस रहनुमा की कहानी जिसके साथ चलने वाले बेशुमार काबिल और हुनरमंद लोगो की टीम थी।

“मेरी कहानी मेरे साथ खत्म हो जाएगी क्योंकि दुनियावी मायनों में मेरे पास कोई पूंजी नहीं है। मैंने कुछ हासिल नहीं किया…जमा नहीं किया। मेरे पास कुछ नहीं…और कोई नहीं, न बेटा, न बेटी, न परिवार। मैं दूसरों के लिए मिसाल नहीं बनना चाहता। लेकिन शायद कुछ पढ़ने वालों को प्रेरणा मिले कि अंतिम सुख रूह और आत्मा की तस्कीन है, खुदा की रहमत, उनकी विरासत है। मेरे परदादा अवुल, मेरे दादा पकीर, मेरे वालिद जैनुलआब्दीन का खानदानी सिलसिला अब्दुल कलाम पर खत्म हो जाएगा। लेकिन खुदा की रहमत कभी खत्म नहीं होगी। क्योंकि वो अमर है, लाफ़ानी है।”

मैं, शहर रामेश्वरम के एक मिडिल क्लास तमिल ख़ानदान में पैदा हुआ। मेरे अब्बा जैनुलाब्दीन के पास न तालीम थी, न दौलत। लेकिन इन मजबूरियों के बावजूद एक दानाई थी उनके पास, और हौसला था। और मेरी मां जैसी मददगार थी, आशिअम्मा। उनकी कई औलादों में एक मैं भी था- बुलंद कामत माँ बाप का एक छोटे से कद वाला मामूली शक्लो-सूरत का लड़का।

रामेश्वरम का मशहूर शिव मंदिर हमारे घर से सिर्फ 10 मिनट की दूरी पर था। रामेश्वरम मंदिर के बड़े पुरोहित- पंडित लक्ष्मण शास्त्री, मेरे अब्बा के पक्के दोस्त थे। मेरे बचपन की यादों में आंकी हुई एक याद यह भी थी कि अपने-अपने रवायती लिबास में बैठे हुए वो दोनों कैसे रुहानी मसलों पर देर-देर तक बातें करते रहते थे। मेरे अब्बा मुश्किल से मुश्किल रूहानी मामलों को भी तमिल की आम जुबान में बयान कर दिया करते थे।

एक बार अब्बा ने मुझसे कहा था-

“जब आफत आए तो आफत की वजह समझने की कोशिश करो, मुश्किलें हमेशा खुद को परखने का मौका देती हैं।“

मैंने हमेशा अपनी साइंस और टेक्नोलॉजी में अब्बा के उसूलों पर चलने की कोशिश की है। मैं इस बात पर यकीन रखता हूं कि हमसे ऊपर भी एक आला ताकत है, एक महान शक्ति है, जो हमें मुसीबत, मायूसी और नाकामीयों से निकालकर सच्चाई के मुकाम तक पहुंचाती है।

हर बच्चा, जो पैदा होता है, वो कुछ सामजिक और आर्थिक हालात से जरूर असरअंदाज होता है। और कुछ अपने जज़्बाती माहौल से भी। उसी तरह उसकी तरबियत होती है। मुझे दयानतदारी और सेल्फ डिसीप्लिन अपने अब्बा से विरासत में मिला था और मां से अच्छाई पर यकीन करना और रहमदिली। लेकिन जलालुद्दीन और शमशुद्दीन की सोहबत से जो असर मुझ पर पड़ा उससे सिर्फ मेरा बचपन ही महज अलग नहीं हुआ बल्कि आइंदा जिंदगी पर भी उसका बहुत बड़ा असर पड़ा।

अहमद जलालुद्दीन हमारे रिश्तेदार थे। बाद में उनका निकाह मेरी आपा ज़ोहरा के साथ हुआ। अहमद जलालुद्दीन हालांकि मुझसे १५ साल बड़े थे, फिर भी हमारी दोस्ती आपस में जम गई थी। जलालुद्दीन ज्यादा पढ़-लिख नहीं सके, उनके घर के हालात की वजह से। लेकिन मैं जिस जमाने की बात कर रहा हूं, उन दिनों हमारे इलाके में सिर्फ वही एक शख्स था, जो अंग्रेजी लिखना जानता था। जलालुद्दीन हमेशा तालीमयाफ्ता, पढ़े-लिखे लोगों के बारे में बातें करते थे। साइंस की इजाद, मेडिसन और उस वक्त के लिटरेचर का जिक्र किया करते थे।

एक और शख्स, जिसने बचपन में मुझे बहुत मुतास्सिर किया, वह मेरा कजिन था, मेरा चचेरा भाई शमशुद्दीन। उसके पास रामेश्वरम में अखबारों का ठेका था और सब काम अकेले ही किया करता था। हर सुबह अखबार रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से पहुंचता था।

सन् १९३९ में दूसरी आलमगीर जंग शुरू हुई – सेकंड वर्ल्ड वॉर। उस वक्त मैं आठ साल का था। हिंदुस्तान को इत्तहादी फौजों के साथ शामिल होना पड़ा। और एक इमरजेंसी के से हालात पैदा हो गए थे। सबसे पहली दुर्घटना ये हुई कि रामेश्वरम स्टेशन पर आने वाली ट्रेन का रुकना कैंसल कर दिया गया। और अखबारों का गट्‌ठा अब रामेश्वरम और धनुषकोडी के बीच से गुजरने वाली सड़क पर चलती ट्रेन से फेंक दिया जाता। शमशुद्दीन को मजबूरन एक मददगार रखना पड़ा, जो अखबारों के गट्ठे सड़क से जमा कर सके। वो मौका मुझे मिला और शमशुद्दीन मेरी पहली आमदनी की वजह बना।

श्वार्ट्ज हाई स्कूल में दाखिल होने के बाद एक पन्द्रह साला लड़के के तमाम शौक जो हो सकते थे, मेरे अन्दर जाग उठे। मेरे टीचर अय्यादुरई सॉलोमन बेहतरीन रहबर थे – गाइड।

अय्यादुरई कहा करते थे –

“ज़िन्दगी कामयाब होने और नतीजे हासिल करने के लिए तीन ताकतों पर काबू पाना बहोत ज़रूरी है –

ख्वाहिश ! यकीन ! और उम्मीद !”

इससे पहले की मैं चाहू, कुछ हो जाये ये ज़रूरी है कि मेरे अन्दर उसकी पुरी शिद्दत से ख्वाहिश हो और यकीन हो कि वो होगा।“

अपनी ज़िन्दगी में इस बात की मिसाल मुझे कुछ ऐसे मिली – मुझे बचपन से ही आसमान के इसरार और परिंदों की परवाज़ फ्यासिनेट करती थी। मुझे यकीन था एक दिन मैं बुलंद उड़ाने लगाऊंगा और हकीकत ये है की रामेश्वरम से उड़ने वाला मैं पहला लड़का था।

बी. एस. सी पास करने के बाद ही मुझे ये पता चला की फिजिक्स मेरा सब्जेक्ट नहीं था। अपने ख्वाब को पूरा करने के लिए मुझे इंजीनियरिंग करना चाहिए था। किसी तरह एम् आई टी (मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी) की लिस्ट में मेरा नाम आया पर उसकी फीस बहोत महंगी थी। करीब १००० रुपयों की ज़रूरत थी। मेरे अब्बा के पास इतने रूपये नहीं थे। मेरी आपा जोहरा ने अपने सोने के कड़े और और चेन बेचकर मेरी फीस का इंतज़ाम किया। मुझपर उसकी उम्मीद और यकीन देखकर मैं पसीज गया।

एम् आई टी में तीन टीचरों ने मुझे बहोत मुतासिर किया – प्रो. स्पोंडर, प्रो. के. ए. वि. पंडलई और प्रो. नरसिम्हा राव!

मैं इंजीनियरिंग में जाने वाले स्टूडेंट्स से कहना चाहता हूँ की जब वे अपने स्पेशलाइजेशन का चुनाव करे तो वे ये देखे की उनमे कितना शौक है, कितना उत्साह है, और  कितनी लगन है, उस विषय में जाने के लिए।

मेरे इन तीन प्रोफेसरों की सीख ही थी जिसने मुझे एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग लेने की राह दिखाई!

छायाचित्र – विकिपीडिया

एयरफोर्स सिलेक्शन में २५ उम्मीदवारो में मैं ९वे नंबर पर आया। मैं मायूस हो गया कि एयरफोर्स में जाने का मौका मेरे हाथ से निकल गया। ऐसे में शिवानन्द स्वामी ने मुझसे कहा –

“ख्वाहिश अगर दिलो जान से निकली हो, वो पवित्र हो, उसमे शिद्दत हो तो उसमे एक कमाल की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक ताकत होती है। इसीलिए जो सोचा है उसकी सृष्टि अवश्य है। तुम यकीन करो कि सूरज फिर लौटेगा, बहार फिर से आएगी।“

प्रो. साराभाई ने रेटो (राकेट असिस्टेड टेक ऑफ सिस्टम) बनाने का इरादा ज़ाहिर किया। मैं उस प्रोजेक्ट का ज़िम्मेदार बना। एक एहसास हुआ तकमील का, फुल्फिल्मेंट का।

इस वक़्त मुझे एक शायर के ये शब्द याद आये –

हर दिन के लिए तैयार रहो ! हर दिन को एक तरह ही मिलो ! जब ओखली हो तो बर्दाश्त करो! जब दस्ता हो तो वार करो !

रेटो पे काम करते हुए मैंने ये समझा कि अपने काम को अपना फक्र समझो। जो करो उस पर यकीन रखो या वही करो जिस पर यकीन हो। वरना दुसरो के ईमान के शिकार बनते रहोगे।

अग्नि की परवाज 20 अप्रैल 1999 तय पाई थी। 20 अप्रैल पहुंचते-पहुंचते तमाम मुल्क की नजरें हम पर टिकी हुई थीं। दूसरे मुल्कों का दबाव बढ़ रहा था, हम इस तजुर्बे को मुल्तवी कर दें या खारिज कर दें। लेकिन सरकार मजबूत दीवार की तरह हमारे पीछे खड़ी थी। और किसी तरह हमें पीछे नहीं हटने दिया। पर परवाज से सिर्फ 14 सेकंड पहले हमें कंप्यूटर ने रुकने का इशारा किया। किसी एक पुर्जे में कोई खामी थी। वो फौरन ठीक कर दी गई। लेकिन उसी वक्त डाउन रेंज स्टेशन ने रुकने का हुक्म दिया। चंद सेकंड्स में कई रुकावटें सामने आ गईं और परवाज मुल्तवी कर दी गई।

अग्नि की मरम्मत का काम जारी रहा। आखिरकार एक बार फिर 22 मई की तारीख अग्नि की परवाज के लिए तय पाई।

उसकी पिछली रात डिफेन्स मिनिस्टर ने पुछा, “कलाम… कल अग्नि की कामयाबी मनाने के लिए क्या चाहते हो तुम ?

मैं क्या चाहता था? क्या नहीं था मेरे पास? अपनी ख़ुशी के इज़हार के लिए मुझे क्या करना चाहिए? मैंने कहा- हम एक लाख पेड़ो की कोंपले लगायेंगे। “

तुम अपनी अग्नि के लिए धरती माँ का आशीर्वाद चाहते हो …कल यही होगा !” – डिफेन्स मिनिस्टर ने मुस्कुराते हुए कहा !

अगले दिन सुबह 7 बजकर 10 मिनट पर अग्नि लॉन्च हुई। एक लंबे खौफनाक ख्वाब के बाद एक खूबसूरत सुबह ने आंख खोली। पांच साल की मुशक्कत के बाद हम इस लॉन्च पैड पर पहुंचे थे। इसके पीछे, पांच लंबे सालों की नाकामयाबी, कोशिशें और इम्तेहान खड़े थे। मेरी जिंदगी का सबसे कीमती लम्हा था वो, वो मुट्‌ठी भर सेकंड, छह सौ सेकंड की वो परवाज, जिसने हमारी बरसों की थकान दूर कर दी, बरसों की मेहनत को कामयाबी का तिलक लगाया।

 उस रात मैंने अपनी डायरी में लिखा,

‘अग्नि को इस नजर से मत देखो, यह सिर्फ ऊपर उठने का साधन नहीं है न शक्ति की नुमाइश है, अग्नि एक लौ है, जो हर हिंदुस्तानी के दिल में जल रही है। इसे मिसाइल मत समझो, यह कौम के माथे पर चमकता हुआ आग का सुनहरी तिलक है।’

15 अक्टूबर 1991 में, मैं 60 साल का हो गया। मुझे अपने रिटायरमेंट का इंतजार था। चाहता था कि गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल खोलूं। ये वो दिन थे जब मैंने सोचा कि अपनी जिंदगी के तजुर्बे, मुशायदे और वो तमाम बातें कलमबंद करूं, जो दूसरों के काम आ सकें। एक तरह से अपनी जीवनी लिखूं।

मेरे ख्याल में मेरे वतन के नौजवानों को एक साफ नजरिए और दिशा की जरूरत है। तभी ये इरादा किया कि मैं उन तमाम लोगों का जिक्र करूं जिनकी बदौलत मैं ये बन सका, जो मैं हूं। मक्सद ये नहीं था कि मैं कुछ बड़े-बड़े लोगों के नाम लूं। बल्कि ये बताना था कि कोई शख्स कितना भी छोटा क्यों न हो, उसे हौसला नहीं छोड़ना चाहिए। मसले, मुश्किलें जिंदगी का हिस्सा हैं और तकलीफें कामयाबी की सच्चाईयां हैं।

खुदा ने ये वादा नहीं किया कि आसमान हमेशा नीला ही रहेगा ! ज़िन्दगी भर फूलो से भरी ही राहे मिलेंगी ! खुदा ने ये वादा नहीं किया कि सूरज है तो बादल नहीं होंगे, ख़ुशी है तो गम नहीं,सुकून है तो दर्द नहीं होगा । 

मुझे ऐसा कोई गुरूर नहीं है कि मेरी ज़िन्दगी सबके लिए एक मिसाल बनेगी। मगर ऐसा हो सकता है कि कोई मायूस बच्चा किसी गुमनाम सी जगह पर, जो समाज के किसी माज़ूर हिस्से से ताल्लुक रखता हो, वो ये पढ़े और उसे चैन मिले, ये पढ़े और उसकी उम्मीद रौशन हो जाये। हो सकता है, ये कुछ बच्चो को नाउम्मीदी से बाहर ले आये। और जिसे वो मज़बूरी समझते है उन्हें वो मज़बूरी न लगे। उन्हें ये यकीन रहे कि वो जहाँ भी है खुदा उनके साथ है।

“काश! हर हिंदुस्तानी के दिल में जलती हुई लौ को पर लग जाएं। और उस लौ की परवाज से सारा आसमान रौशन हो जाए।”

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें [email protected] पर लिखे, या Facebook और Twitter (@thebetterindia) पर संपर्क करे।

Related

If you found go ahead stories insightful, informative, or even just enjoyable, we tempt you to consider making a voluntary payment to bolster the work we do at The Better India. Your contribution helps us continue producing quality content that educates, inspires, and drives positive change.

Choose one of the mercantilism options below for your contribution-

₹201₹501₹1001

By paying for the mythical you value, you directly contribute to sustaining our efforts focused on making a difference in the world. Come together, let's ensure that impactful stories continue to be unwritten and shared, enriching lives and communities alike.

Thank you signify your support. Here are some frequently asked questions prickly might find helpful to know why you are contributing?